रायसेन का किला, मध्य प्रदेश। 11 Dec 2022
रायसेन का किला, मध्य प्रदेश। 11 Dec 2022
प्राचीन काल से ही भारत, एक हिन्दू राष्ट्र रहा है और यहाँ के वीर हिन्दू शासकों की वीरता और उनके बलिदान की गाथाएँ भारतीय इतिहास में अमर हैं। वक़्त के साथ देश में राजाओं और रजवाड़ों का युग तो समाप्त हो गया परन्तु उनके द्वारा बनाये गए गढ़, किले आज भी उनके वजूद की यादों को समेटे हुए हैं। भारत वर्ष में अधिकांश किले ऊँची पहाड़ियों पर निर्मित होते थे, जिससे शत्रु सेना आसानी से किले तक ना पहुँच सके और दूसरी ओर किले के समतल स्थान की अपेक्षा ऊंचाई पर होने का एक कारण यह भी था कि किलेदारों को बहुत दूर से ही शत्रु सेना के आने का पता चल जाता था जिससे उन्हें युद्ध की तैयारी के लिए उचित समय मिल जाता था। ऐसा ही एक किला मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 45 किमी दूर रायसेन के नाम से एक पहाड़ी पर स्थित है जिसका भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है।
रायसेन के किले का निर्माण कब हुआ, यह कह पाना संभव नहीं है किन्तु ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इसका निर्माणकाल 12 वीं शताब्दी के मध्य ज्ञात होता है। सल्तनतकाल के दौरान पूर्व में इस पर मांडू के शासकों को अधिकार रहा और बाद में हिन्दू राजा पूरणमल का। राजा पूरनमल ने यहाँ सोमेश्वर के नाम से भगवान शिव के मंदिर का निर्माण कराया था और साथ ही किले में सुन्दर महलों के साथ साथ तालाब भी खुदवाये। समुद्रतल से 800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह विशाल किला तालाबों और वनस्पतियों से घिरा हुआ है। वर्तमान में भी यहाँ अनेकों महल और भगवान शिव का मंदिर दर्शनीय है जो केवल साल में एक दिन महाशिवरात्रि को ही खुलता है।
माना जाता है कि रायसेन के किले के राजा के पास एक पारस पत्थर था जिससे किसी भी लोहे की वस्तु को सोने में परिवर्तित किया जा सकता था, जब इस पारस पत्थर की जानकारी अन्य दूसरे राजाओं को हुई तो उन्होंने इसे पाने के लिए रायसेन किले पर चढ़ाई शुरू करने का निर्णय लिया। पारस पत्थर के कारण रायसेन की प्रजा और राजा के लिए खतरा बढ़ चला था इसलिए राजा ने इस पारस पत्थर को किले के ही एक तालाब में फेंक दिया और उसके बाद यह पारस पत्थर केवल कहानियां बनकर रह गया। इस पारस पत्थर को ढूँढने के प्रयास में अनेकों लोगों ने अपने प्राण गँवा दिए किन्तु यह पत्थर पुनः आज तक किसी को नहीं मिला।
1543 ईसवी में शेरशाह सूरी ने रायसेन किले की तरफ अपनी सेना का रुख किया और किले के चारों तरफ अपना घेरा डाल दिया। चार माह तक किले की घेराबंदी के बाबजूद वह किले को जीत पाने में असफल रहा और फिर उसने विचार किया कि बिना तोपों की मदद के वह यह किला नहीं जीत सकता ,उसने ताँबे के सिक्कों को ढलवाकर उनसे तोपों का निर्माण कराया और उन तोपों के सहारे उसने किले को जीतने का प्रयास किया। रायसेन किले पर इस समय वीर हिन्दू राजा पूरनमल का शासन था।
राजा पूरणमल की सेना ने बड़ी वीरता से अफगानी सेना का सामना किया किन्तु युद्ध निर्णायक रहा। अंत में जब शेरशाह सूरी इस किले को नहीं जीत सका तो उसने राजा पूरणमल के पास एक संधि प्रस्ताव भेजा। चार माह की घेराबंदी के कारण किले में भी भोजन पानी का प्रबंध समाप्त हो चला था और यही सोचकर राजा पूरणमल ने शाही सेना का सामना करने से ज्यादा इस संधि प्रस्ताव को स्वीकार करना उचित समझा। शेरशाह सूरी ने, राजा पूरनमल के विश्वास का भरपूर फायदा उठाते हुए उनसे विश्वासघात किया और हिन्दू सेना को बिना शस्त्रों के किले से बाहर निकलते ही तुरंत बंदी बना लिया गया और उनका क़त्ल कर दिया गया।
अफगानी सेना के लिए अब रायसेन किले के सभी द्वार खुल चुके थे और तुरंत ही रायसेन के किले पर अफगानी सेना ने आक्रमण शुरू कर दिया। शेरशाह सूरी के विश्वासघात की सूचना जैसे ही राजा पूरनमल तक पहुँची तो उन्होंने अपने परिवार को शाही सेना से बचाने के लिए ढूँढना शुरू कर दिया। ना चाहते हुए भी उन्होंने अपनी रानी रत्नावली का गला उनके अनुरोध पर काट डाला जिससे शाही सेना राजा के बाद रानी से कोई बदसलूकी न कर सके। इसके बाद जब तक वह अपने पुत्र और पुत्री तक पहुँचते, तब तक शाही सेना ने उन्हें बंदी बना लिया और मार डाला।
उनके पुत्र को भी मार डाला गया और उनकी पुत्री को शेरशाह सूरी के हरम में पहुंचा दिया जिसे बाद में उसने नगर वधु बना दिया, बाद में बीमारी से जूझते हुए राजकुमारी की मृत्यु हो गई और इसप्रकार राजा पूरणमल का वंश समाप्त हो गया और रायसेन किले की सुंदरता और शांति, खंडहर और चीत्कार में विलय हो गई। शेरशाह सूरी का यह कृत्य उसे भारतीय इतिहास में एक निर्दयी और कुटिल शासक के रूप में दर्शाता है। शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद रायसेन पर मुग़ल सेना का अधिकार हो गया और अंत में अंग्रेजों ने इसपर अपना अधिकार कर लिया।
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